हमर नव कविता वर्तमान पारप्रेक्ष्य मे लिखल (हिन्दी मे)
......... मुझे है चिंता !!!
मुझे है चिंता!
न कल की, न आज की,
न तख़्त की, न ताज़ की
प्रेम की, न राग़ की
न ही, अपने भाग और अभाग की।
धूप की, छाँव की
न प्रेवेशोन्मुख हो रहे, दर्द के दवे पाँव की।
रोटी की, दाल की
न अपनो के बदले हुए चाल की।
मुझे है चिंता –
जीव मात्र के मुख से, उडते हुए मलाल की
मुझे है चिंता।
मुझे है चिंता!
बच्चों के स्कूल के फीस की,
न अर्थाभाव के टीस की।
अजायब घर में स्पंदनहीन, दादी के लोरी की
न, अदद गोदान का स्वप्न लेकर मर रहे होरी की।
रामलीला मैदानी चक्रव्युह में, फँसे बुढे अर्जुन की
न ही लुटी निर्भया के लिए, शोकाकुल आमजन की।
भागिरथी के गाँव में, दूध पर भाडी पडते पानी के कीमत की।
न भाईयों के बीच से, घायल भाईचारे की रवानगी की।
मुझे है चिंता!
बस और केवल बस
जवानों के देश से, गायब हो रहे जवानी की।
मुझे है चिंता!
मुझे है चिंता!
स्वप्न की, सपनों के चाह की
न भटके हुए नैतिकता के राह की।
प्रेम में, प्रेम से छल जाने की, अदाओं की
न दिन दुगूनी रफ्तार से बढ़े, कुंठित मर्यादाओं की।
बोस की, और चोरी हो चुके महात्मा के नाम की,
न बापू की छाया में बापू बनकर,
आशा को कलंकित करने वाले राम की।
आर्यावर्त-हिंदुस्तान-भारत की, आज के इंडिया की
न ही गीता-द्रौपदी-सीता की, गोकुल की टूटी हाण्डियों की।
मुझे है चिंता
सिर्फ और सिर्फ ‘छगरागोत्र’ बन
जन्म ले रही वर्णशंकर मनोवृतियाँ की।
मुझे है चिंता!
मुझे है चिंता!
तंत्र की, यंत्र की
न ही सत्तालोलुपता से आए 'नए मंत्र' की
परंतु !!
नहीं हूँ मैं हारा,
भले ही हूँ समय का मारा।
फिर भी दिकभ्रमित नहीं हूँ
किसी विद्वान की उदासिनता भी नहीं।
मैं भीष्म के तरह तटस्थ नहीं
कि, महाभारत का रण देखूँ
वीर होते हुए भी कायरता का वरण करूँ!
मैं हारा नहीं हूँ
और हार भी नहीं मानूँगा
मैं, हार नहीं मानुँगा।
उदासिनता, तटस्थता या फिर कायरता से,
विस्वास, प्रेम या ज्ञान की क्षणभंगुरता से,
मैं, हार नहीं मानुँगा।
मगध के सत्तावीर के तुनीर में
पाए गए अर्जुन के तीर से।
न ही लालटेन को रौशन कर
झोपडी से सत्ता तक पहुँचने वाले वीर से।
मैं हारा नही हूँ ।
देवासन से विरक्त,
कुर्सीयोन्मुख खिलाने वाले कमल के तात से,
कट जाते हैं कुर्सी चढाकर जो
आम जन के उस हाथ से।
मैं हारा नहीं हूँ, बस चिंता है...
हाँ, मुझे है चिंता
हमारे कर्मफल पर रो रहे पूर्वजों की आत्मा की,
कुचक्रों से जल-जल हो रहे सत्ता परमात्मा की।
मुझे है चिंता
कल की, आज की, और भारत के भाल की,
जन की हत्या करने वाले आज के तंत्र की,
खुद के अवशेष से निकले मानवता के नए मंत्र की।
मुझे है चिंता!!!
मुझे है चिंता!!!
काश्यप कमल
......... मुझे है चिंता !!!
मुझे है चिंता!
न कल की, न आज की,
न तख़्त की, न ताज़ की
प्रेम की, न राग़ की
न ही, अपने भाग और अभाग की।
धूप की, छाँव की
न प्रेवेशोन्मुख हो रहे, दर्द के दवे पाँव की।
रोटी की, दाल की
न अपनो के बदले हुए चाल की।
मुझे है चिंता –
जीव मात्र के मुख से, उडते हुए मलाल की
मुझे है चिंता।
मुझे है चिंता!
बच्चों के स्कूल के फीस की,
न अर्थाभाव के टीस की।
अजायब घर में स्पंदनहीन, दादी के लोरी की
न, अदद गोदान का स्वप्न लेकर मर रहे होरी की।
रामलीला मैदानी चक्रव्युह में, फँसे बुढे अर्जुन की
न ही लुटी निर्भया के लिए, शोकाकुल आमजन की।
भागिरथी के गाँव में, दूध पर भाडी पडते पानी के कीमत की।
न भाईयों के बीच से, घायल भाईचारे की रवानगी की।
मुझे है चिंता!
बस और केवल बस
जवानों के देश से, गायब हो रहे जवानी की।
मुझे है चिंता!
मुझे है चिंता!
स्वप्न की, सपनों के चाह की
न भटके हुए नैतिकता के राह की।
प्रेम में, प्रेम से छल जाने की, अदाओं की
न दिन दुगूनी रफ्तार से बढ़े, कुंठित मर्यादाओं की।
बोस की, और चोरी हो चुके महात्मा के नाम की,
न बापू की छाया में बापू बनकर,
आशा को कलंकित करने वाले राम की।
आर्यावर्त-हिंदुस्तान-भारत की, आज के इंडिया की
न ही गीता-द्रौपदी-सीता की, गोकुल की टूटी हाण्डियों की।
मुझे है चिंता
सिर्फ और सिर्फ ‘छगरागोत्र’ बन
जन्म ले रही वर्णशंकर मनोवृतियाँ की।
मुझे है चिंता!
मुझे है चिंता!
तंत्र की, यंत्र की
न ही सत्तालोलुपता से आए 'नए मंत्र' की
परंतु !!
नहीं हूँ मैं हारा,
भले ही हूँ समय का मारा।
फिर भी दिकभ्रमित नहीं हूँ
किसी विद्वान की उदासिनता भी नहीं।
मैं भीष्म के तरह तटस्थ नहीं
कि, महाभारत का रण देखूँ
वीर होते हुए भी कायरता का वरण करूँ!
मैं हारा नहीं हूँ
और हार भी नहीं मानूँगा
मैं, हार नहीं मानुँगा।
उदासिनता, तटस्थता या फिर कायरता से,
विस्वास, प्रेम या ज्ञान की क्षणभंगुरता से,
मैं, हार नहीं मानुँगा।
मगध के सत्तावीर के तुनीर में
पाए गए अर्जुन के तीर से।
न ही लालटेन को रौशन कर
झोपडी से सत्ता तक पहुँचने वाले वीर से।
मैं हारा नही हूँ ।
देवासन से विरक्त,
कुर्सीयोन्मुख खिलाने वाले कमल के तात से,
कट जाते हैं कुर्सी चढाकर जो
आम जन के उस हाथ से।
मैं हारा नहीं हूँ, बस चिंता है...
हाँ, मुझे है चिंता
हमारे कर्मफल पर रो रहे पूर्वजों की आत्मा की,
कुचक्रों से जल-जल हो रहे सत्ता परमात्मा की।
मुझे है चिंता
कल की, आज की, और भारत के भाल की,
जन की हत्या करने वाले आज के तंत्र की,
खुद के अवशेष से निकले मानवता के नए मंत्र की।
मुझे है चिंता!!!
मुझे है चिंता!!!
काश्यप कमल
अच्छी कविता है
जवाब देंहटाएंit is very beautiful and bitter truth
जवाब देंहटाएंChinta se kuch badlta bhi kahan hai
जवाब देंहटाएंJo jaisa hai wo waisa hi rahta hai
Isliye chinta nahi or chit ko shant karna chahiye